हमारे शिक्षण के25 वर्ष! ...............................
हमारी संस्कृति और सभ्यता में उदारता ,विश्व बंधुत्व, सागर में कुंभ कुंभ में सागर आदि की प्रेरणा मिलती है । विश्वास नहीं करता है- कैसे अनेकता में एकता, विभिन्नता में एकता महसूस की जा सकती है? अनेक भाषाओं ,जातियों ,पंथवाला यह देश कैसे अस्तित्व में है ?विश्व भारत से उम्मीदें कर रहा है लेकिन किस भारत से? हमें अपनी शिक्षा प्रणाली, शिक्षक, विद्यार्थी, विद्यालय समितियों आदि के लिए मूल्य आधारित शिक्षा हेतु कार्य संस्कृति ,संरक्षण, साहस ,मनोविज्ञान ,रुचि, आचरण ,व्यवसाय आदि पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ।01 जुलाई 2021 को हमारे शिक्षण कार्य को 25 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं हम ऐसे एसएस कॉलेज शाहजहांपुर में B.Ed क्लासेस 1993 1994 के दौरान ही शिक्षण कार्य की पद्धतियों से जुड़े जब 5 अक्टूबर 1994 को हम ने प्रथम बार विश्व शिक्षक दिवस मनाया। कुल, संस्था ,पास पड़ोस, समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ नुक्ताचीनी, दूसरों में दोष खोजने की प्रवृत्ति लेकिन उन्हें दूसरों में गुण या अच्छाइयां नहीं दिखाई देते ।
एक व्यक्ति हमसे दो बार कह चुके हैं- आपका इन 25 वर्षों में क्या योगदान रहा? हमारा जवाब था कि हम नहीं जानते ।जिसने योगदान महसूस किया वही जानता होगा । ईसा,सुकरात जब थे धरती पर तब उनको कितने लोगों ने सराहा? शिक्षा दो लोगों के बीच की मानसिक क्रिया है। एक शिक्षक एक साथ चाहे कितनों को भी शिक्षा दे रहा हो लेकिन एक शिक्षक और विद्यार्थी दो के बीच की ही प्रक्रिया है ।इसमें तीसरे का हस्तक्षेप नाजायज है। शिक्षक इस स्तर से शिक्षा दे रहा है विद्यार्थी किस स्तर से उसे ग्रहण कर रहा है यह व्यक्तिगत मानसिक समझ स्तर पर , नजरिया आदि पर निर्भर है। हम किसके लिए प्रेरणा स्रोत हैं ?यह वही जानता होगा जिसके लिए हम प्रेरणा हैं। हम धरती पर अकेले होकर भी अकेले नहीं हैं। हम एक तंत्र का हिस्सा हैं। जातियों, संप्रदायों, संस्थाओं, समाज के बीच हो सकता है कि हम आप को अकेले दिखते हो लेकिन कायनात के सूक्ष्म से सूक्ष्म तंत्र ,सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतर तन्त्र में हम किसी स्तर या बिंदु पर एक व्यवस्था की कड़ी हैं। मानव समाज में 98% व्यक्ति स्थूल , बनावटी, पूर्वाग्रहों छाप आदि से प्रभावित और निर्मित तंत्र और भ्रम के कारण निर्मित व्यवस्था का हिस्सा है। इसलिए देखा जाता है- पास पड़ोस, समाज, देश आदि में एक दो लोग ऐसे होते हैं जिनकी बात उम्दा होती है। आचरण किसी को कष्ट देने वाला नहीं होता है ।संवैधानिक वातावरण ,मानवता को महत्व देने वाले होते हैं आदि-आदि। लेकिन समाज, समाज के ठेकेदार ,समाज की संस्थाएं ,उनके साथ नहीं खड़ी होती। यह समाज और समाज के ठेकेदारों का भ्रम होता है। वे उनके साथ क्यों न खड़े हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं है 2% व्यक्ति गलत रास्ते पर हो? भविष्य के लिए वही होते हैं। 98% वर्तमान व्यवस्था के रहते भविष्य में अशांति और असंतुष्ट में रहने वाले हैं या फिर उन 2% व्यक्तियों के रास्ते को ही पकड़ने वाले हैं ।सुधार, शिक्षा क्या है? परिवर्तन को स्वीकार करना ।हर पल परिवर्तन की संभावनाएं चेतना के अग्रिम बिंदुओं की ओर जाने की तड़प और जिज्ञासा, निरंतरता, विकासशीलता। वर्तमान शिक्षा सिर्फ बच्चों को घेरना, परीक्षा कार्यक्रम, अपना काम निकालने ,ड्यूटी अर्थात अपनी नौकरी बचाने आदि तक सीमित रह गई है। केवल 2% बच्चे ही विद्यार्थी हैं ।केवल 2% व्यक्ति ही अध्यापक हैं। केवल 2% ही अभिभावक हैं। क्लास भी क्लास नहीं अर्थात क्लास का जो पाठ्यक्रम है उसके आधार पर क्लास का स्तर नहीं। नई पीढ़ी के स्तर को खुश करने के लिए कौन सजग है ?यदि सजग भी है तो किस स्तर पर? विज्ञान की डिग्रियां ले घूम हैं लेकिन नजरिया, आस्था वैज्ञानिक नहीं। फिजिक्स से एमएससी कर क्यों न नौकरी कर ₹80000 कमा रहे हो लेकिन फिजिक्स में क्या योगदान ? केमिस्ट्री में एम एस सी का केमिस्ट्री में क्या योगदान... आदि आदि। आज जो शिक्षित या बुद्धिजीवी माने जा रहे हैं वे वास्तव में ज्ञान के जगत में क्या योगदान रखते हैं? सन 1994 में एसएस कॉलेज शाहजहांपुर B.Ed क्लासेस के दौरान हमने शिक्षा संबंधी एक पुस्तक में पढ़ा था शिक्षा जगत में मुख्य समस्या है- विद्यार्थी विद्यार्थी नहीं है, शिक्षक अब शिक्षक नहीं है। विद्यार्थी सामान्य बालक बालिका से ऊपर या नीचे हो सकता है। वह सामान्य हो सकता है ।शिक्षक भी ऐसा ही है । उस दौरान हमने बहादुरगंज कटिया टोला के रोटी गोदाम स्कूल में कक्षा 7 में गणित और कक्षा 6 में इतिहास पढ़ाना शुरू किया था। हमने यह विद्यार्थी जीवन में ही महसूस करना शुरू कर दिया था। विद्यार्थी विद्यार्थी है ही नहीं। स्कूल में आना स्कूल में रहना क्लास में जाना क्लास में बैठना आदि सब 90% के लिए सिर्फ मजबूरी हो सकता है, मजबूरी होता है। 8% सिर्फ शिक्षा, शिक्षण शिक्षा और शिक्षण के पाठ्यक्रम प्रति कोशिश करने वाले एवं 2% ही लगभग पाठ्यक्रम में अब और पाठ्यक्रम के विषयों में रूचि रखने वाले होते हैं। 90% सिर्फ सांसारिक ता को जीने वाले मन और मन को सराय रखने वाले होते हैं अर्थात ब्रह्मचर्य अर्थात अंतर प्रकाश अर्थात चिंतन मनन, ज्ञानता आदी रहना नहीं। इन 90% में 2% तो ऐसे होते हैं जो विद्यालय और क्लास की मर्यादा में भी नहीं होते ।साल भर में तीन चार बार विद्यालय से बाहर किया जाता है। माफीनामा होता है लेकिन परिणाम टाय टाय फिश ....यही प्रतिशत शिक्षक समाज में भी दिखता है। वास्तव में 2% ही बेहतर हैं- समाज और संस्थाओं में सामाजिकता, मनोविज्ञान आदि में ही है न की प्रेरणादायक। समाज, संस्थाओं में जिन का दबदबा है उनके जब काफी नजदीक होते हैं तब भी हमें प्रेरणादायक नहीं होते। किसी ने कहा है दुनिया जिसके हाथ में होना चाहिए उनके हाथ में नहीं है। लेकिन इसका कारण है 90% लोग और इन 90% में से भी 2% लोग। ऐसे में हम समाज संस्था और विश्व में अकेले हैं तो क्या एक-एक कर अन्य से संपर्क करने की कोशिश करते रहो बस । वैसे भी शिक्षा मानसिक प्रक्रिया है शिक्षण दो दिलों, दो मन ,दो दिमाग, दो रुझानों के बीच की प्रक्रिया है ।विद्यालय और क्लास में यदि कोई विद्यार्थी तथा कब तक विद्यार्थी यदि अध्यापक की बातों में रुचि नहीं रख रहा है, उसके निर्देशानुसार में क्लास या स्कूल में मर्यादा बनाकर नहीं रहता है या फिर 90% में से 2% अध्यापकों की सेवा में लीन होकर अपना उल्लू सीधा कर रहा है। वह कुल 100 में से 2% की बातों, मानसिकता, शिक्षण प्रक्रिया में भागीदार कैसे हो? कुुुछ का साहस अंतर्मुखी होता है वरन 90% में से 2% का साहस बहिर्मुखी ।इसलिए समाज, संस्थाओं और विश्व में यही ज्यादा प्रभावित करते हैं ,कुछ अपवादों को छोंड़ कर। हमारा कार्य, समाज, संस्था, कुल आदि में अपने को प्रमाणित करना नहीं है ।चरित्र को जीना नहीं है, हमें महापुरुषों के जीवन में, आत्मा में, परमात्मा में, छात्राओं के अग्रिम बिंदुओं में अपने को प्रमाणित करना है । अपना चरित्र जीना है। हमें भूतगामी नहीं, भविष्य गामी बनना है।जिसका आधार वर्तमान है। दुनिया में सबसे बेहतर कार्य है निरंतर अभ्यास और जागरण में रहना ।जीवन पथ पर विकास नहीं है ,पूर्णता नहीं है वरन विकासशीलता है ।हमारी चतुराई इसी में है कि इस शरीर को त्याग ते वक्त हम सब दुनियादारी छोड़कर विकासशील सा को छोड़कर पूर्ण हो जाएं, विकसित हो जाएं। सागर हो जाएं। परम प्लस आत्मा बराबर परमात्मा हो जाएं। वर्तमान शिक्षा, शिक्षण, तंत्र व्यवस्था में रहते हम सुधार की ओर अर्थात भविष्य की ओर नहीं बढ़ सकते। हमारी बुद्धिमत्ता तभी है जब वह परिवर्तन को स्वीकार की है। हम जिस स्तर पर या जिस स्तर तक परिवर्तन को स्वीकारते हैं वहीं इस तरह हमारी बुद्धिमत्ता की माप है।
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