SAMAJIKATA KE DANSH !
(मानवता प्रकृति व सार्वभौमिक ज्ञान पर समाजिकता का दबाव व चोट!)
मंगलवार, 7 मार्च 2023
हमारे ग्रन्थों में धर्म क्या?!#अशोकबिन्दु
”परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अघमाई।।
सड़कों ,गलियों, सोशल मीडिया आदि में धर्म को बचाने की बात होती है।हमारे नजदीक जो ऐसे हैं वे भी हमें धर्म में नहीं लगते। ग्रन्थों का अध्ययन हमें बताता है कि कर्मकांड, रीति रिवाज और धर्म के नाम पर जो भी समाज में हो रहा है वह धर्म है ही नहीं।हम लोगों से पूंछ देते है कि हमारे ग्रन्थों में धर्म क्या है,तो खामोश हो जाते हैं। हमारा ज्ञान कहता है धर्म का मतलब समाज व उसकी सामजिकता के आधार पर जीना है ही नहीं।इसी तरह चरित्र भी समाज व सामजिकता की नजर में जीना नहीं है।#अशोकबिन्दु
परोपकार की भावना मनुष्य को महानता की ओर ले जाती है । परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है । ईश्वर भी प्रकृति के माध्यम से हमें यह दर्शाता है कि परोपकार ही सबसे बड़ा गुण है क्योंकि पृथ्वी, नदी अथवा वृक्ष सभी दूसरों के लिए ही हैं ।
‘वृक्ष कबहुँ नहिं फल भखै,
नदी न सर्चै नीर ।
परमारथ के कारणे, साधुन धरा शरीर ।’
परोपकार अर्थात् ‘पर+उपकार’ यानी दूसरों के लिए स्वयं को समर्पित करना व्यक्ति का सबसे बड़ा धर्म है । नदी का जल दूसरों के लिए है । वृक्ष कभी स्वयं अपना फल नहीं खाता है । इसी प्रकार धरती की सभी उपज दूसरों के लिए होती है । चाहे कितनी ही विषम परिस्थितियाँ क्यों न हों परन्तु ये सभी परोपकार की भावना का कभी परित्याग नहीं करते हैं ।
वे मनुष्य भी महान होते हैं जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी स्वयं को दूसरों के लिए, देश की सेवा के लिए अपने आपको बलिदान कर देते हैं । वे इतिहास में अमर हो गए । जब तक मानव सभ्यता रहेगी उनकी कुर्बानी सदा याद रहेगी ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस संदर्भ में बड़ी ही मार्मिक पंक्तियाँ लिखी हैं:
”परहित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अघमाई ।।”
उन्होंने ‘परहित’ अर्थात् परोपकार को मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म बताया है । वहीं दूसरी ओर दूसरों को कष्ट पहुँचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है । परोपकार ही वह गुण है जिसके कारण प्रभु ईसा मसीह सूली पर चढ़े, गाँधी जी ने गोली खाई तथा गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने सम्मुख अपने बच्चों को दीवार में चुनते हुए देखा ।
सुकरात ने विष के प्याले का वरण कर लिया लेकिन मानवता को सच्चा ज्ञान देने के मार्ग का त्याग नहीं किया । ऋषि दधीचि ने देवताओं के कल्याण के लिए अपना शरीर त्याग दिया। इसके इसी महान गुण के कारण ही आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं ।
परोपकार ही वह महान गुण है जो मानव को इस सृष्टि के अन्य जीवों से उसे अलग करता है और सभी में श्रेष्ठता प्रदान करता है । इस गुण के अभाव में तो मनुष्य भी पशु की ही भाँति होता ।
हमारे अंदर देवत्व को भी जगाने की सम्भावनाएं हर वक्त मौजूद हैं।
परम्+आत्मा = परमात्मा !
आत्मा हमारे अंदर है।
अनेक अध्ययनों से हमें ज्ञात हुआ है कि हमारे अंदर जो आत्मा है वह सनातन है।आत्माएं सनातन है।हमारे व जगत के अंदर जो स्वतः, निरन्तर ,शाश्वत है उसके लिए हम क्या कर रहे हैं? जो सबके अंदर है तो उसका सम्मान का मतलब है सबका सम्मान।वास्तव में यही भावना प्रेम है।यही भावना ज्ञान है।यही भावना आस्था है।नजरिया है। ईश्वर निर्मित, प्राण प्रतिष्ठित प्राकृतिक मूर्तियों का सम्मान कब ?! धर्म वास्तव में भेद नहीं रखता।
दुनियाबी धर्म अपने हैं ही नहीं।हम तो गीता के अध्ययन से यही पाते हैं।
" दुनिया के धर्म त्याग मेरी शरण आ। तू भूतों को भजेगा तो भूतों को प्राप्त होगा, पितरों को भजेगा तो पितरों को प्राप्त होगा।.....मुझे भजेगा तो मुझे प्राप्त होगा।"
हमारी नजर में दुनियाबी धर्म हमारा है ही नहीं जिसका विलोम है आत्मा का धर्म, आत्मा विज्ञान.... जिससे ही हम परम् आत्मा, शाश्वत, सनातन आदि की ओर अग्रसर हो सकते है।
हम सभी जीवन भर हाड़ मास शरीर,हाड़ मास शरीरों, उसकी ही आवश्यकताओं ,उसके ही समूहों,उन समूहों के ही रीति रिवाज,कर्म कांड आदि में लगे रहते हैं लेकिन अंदर की आत्मा, अन्य के अंदर की आत्माओं के लिए वर्क करने की सोंचते भी नहीं। हम कहते रहे हैं कि ऐसे में योग करना भी ढोंग, पाखंड है।
और किसी ने ठीक कहा कि भीड़ का कोई धर्म नहीं होता।उन्माद होता है, सम्प्रदाय होता है। जो भीड़ हिंसा, दंगा फसाद में तो बदल सकता है लेकिन परहित ,परोपकार,मानवता आदि में नहीं ।
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति ६.९२)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )। यही धर्म के दस लक्षण है।
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )
पद्मपुराण में कहा गया है -
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)
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