शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

समाजवाद::एक संक्षिप्त परिचय

 समाजवाद का परिचय




समाजवाद (Socialism) एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी है कि सम्पदा का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए। राजनीति के आधुनिक अर्थों में समाजवाद को पूँजीवाद या मुक्त बाजार के सिद्धांत के विपरीत देखा जाता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद युरोप में अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में उभरे उद्योगीकरण की अन्योन्यक्रिया में विकसित हुआ है।



ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी सी० ई० एम० जोड ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने अनुसार पहन लेता है। समाजवाद की विभिन्न किस्में सी० ई० एम० जोड के इस चित्रण को काफी सीमा तक रूपायित करती है। समाजवाद की एक किस्म विघटित हो चुके सोवियत संघ के सर्वसत्तावादी नियंत्रण में चरितार्थ होती है जिसमें मानवीय जीवन के हर सम्भव पहलू को राज्य के नियंत्रण में लाने का आग्रह किया गया था। उसकी दूसरी किस्म राज्य को अर्थव्यवस्था के नियमन द्वारा कल्याणकारी भूमिका निभाने का मंत्र देती है। भारत में समाजवाद की एक अलग किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी है। राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव के राजनीतिक चिंतन और व्यवहार से निकलने वाले प्रत्यय को 'गाँधीवादी समाजवाद' की संज्ञा दी जाती है।

समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द 'सोशलिज्म' का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे।

समाजवाद शब्द का प्रयोग अनेक और कभी कभी परस्पर विरोधी प्रसंगों में किया जाता है; जैसे समूहवाद अराजकतावाद, आदिकालीन कबायली साम्यवाद, सैन्य साम्यवाद, ईसाई समाजवाद, सहकारितावाद, आदि - यहाँ तक कि नात्सी दल का भी पूरा नाम 'राष्ट्रीय समाजवादी दल' था।

समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है। यह सिद्धांत तथा आंदोलन, दोनों ही है और यह विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के समाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि वह इस वर्ग को शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।

आदिकालीन साम्यवादी समाज में मनुष्य पारस्परिक सहयोग द्वारा आवश्यक चीजों की प्राप्ति और प्रत्येक सदस्य के आवश्यकतानुसार उनका आपस में बँटवारा करते थे। परंतु यह साम्यवाद प्राकृतिक था; मनुष्य की सचेत कल्पना पर आधारित नहीं था। आरंभ के ईसाई पादरियों की रहन-सहन का ढंग बहुत कुछ साम्यवादी था, वे एक साथ और समान रूप से रहते थे, परंतु उनकी आय का स्रोत धर्मावलंबियों का दान था और उनका आदर्श जनसाधारण के लिए नहीं, वरन् केवल पादरियों तक सीमित था। उनका उद्देश्य भी आध्यात्मिक था, भौतिक नहीं। यही बात मध्यकालीन ईसाई साम्यवाद के संबंध में भी सही है। पीरू (Peru) देश की प्राचीन इंका (Inka) सभ्यता को 'सैन्य साम्यवाद' की संज्ञा दी जाती है, परंतु उसका आधार सैन्य संगठन था और वह व्यवस्था शासक वर्ग का हितसाधन करती थी। नगरपालिकाओं द्वारा लोकसेवाओं के साधनों को प्राप्त करना, अथवा देश की उन्नति के लिए आर्थिक योजनाओं के प्रयोग मात्र को समाजवाद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि इनके द्वारा पूँजीवाद को ठेस पहुँचे। नात्सी दल ने बैंकों का राष्ट्रीकरण किया था परंतु पूँजीवादी व्यवस्था अक्षुण्ण रही।

समाजवाद का भावनात्मक ढाँचा गढ़ने में इंग्लैण्ड में सत्रहवीं सदी के दौरान ईसाइयत के दायरे में विकसित लेवलर्स तथा डिग्गर्स व सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में मध्य युरोप में विकसित होने वाले ऐनाबैपटिस्ट जैसे रैडिकल आंदोलनों की महती भूमिका रही है। लेकिन समाजवाद की आधुनिक और औपचारिक परिकल्पना फ़्रांसीसी विचारकों सैं-सिमों और चार्ल्स फ़ूरिए तथा ब्रिटिश चिंतक राबर्ट ओवेन की निष्पत्तियों से निकलती है। समाजवाद के ये शुरुआती विचारक व्यक्तिवाद और प्रतिस्पर्द्धा की जगह आपसी सहयोग पर आधारित समाज की कल्पना करते थे। उन्हें विश्वास था कि मानवीय स्वभाव और समाज का विज्ञान गढ़ कर सामाजिक ताने-बाने को बेहतर रूप दिया जा सकता है। परंतु वांछित सामाजिक रूपों के ठोस ब्योरों, उन्हें प्राप्त करने की रणनीति तथा मानव प्रकृति की समझ को लेकर उनके बीच कई तरह के मतभेद थे। उदाहरण के लिये, सैं-सिमों तथा फ़ूरिए रूसो के इस मत से सहमत नहीं थे कि मनुष्य की प्रकृति अपनी बनावट में तो अच्छी, उदात्त और विवेकपूर्ण है लेकिन आधुनिक समाज और निजी सम्पत्ति ने उसे भ्रष्ट कर दिया है। इसके विरोध में उनका तर्क यह था कि मानवीय प्रकृति के कुछ स्थिर और निश्चित रूप होते हैं जिनका परस्पर सहयोग के आधार पर आपस में मेल कराया जा सकता है। ओवेन का मत सैं-सिमों और फ़ूरिए से भी अलग था। उनका कहना था कि मनुष्य की प्रकृति बाहरी परिस्थितियों से तय होती है और उसे इच्छित रूप दिया जा सकता है। इसलिए समाज की परिस्थितियों को इस तरह बदला जाना चाहिए कि मनुष्य की प्रकृति पूर्णता की ओर बढ़ सके। उनके अनुसार अगर प्रतिस्पर्द्धा और व्यक्तिवाद की जगह आपसी सहयोग और एकता को बढ़ावा दिया जाएगा तो समूची मनुष्यता का भला किया जा सकता है।

समाजवाद की राजनीतिक विचारधारा उन्नीसवीं सदी के तीसरे और चौथे दशकों के दौरान इंग्लैण्ड, फ़्रांस तथा जर्मनी जैसे युरोपीय देशों में लोकप्रिय होने लगी थी। उद्योगीकरण और शहरीकरण की तेज गति तथा पारम्परिक समाज के अवसान ने युरोपीय समाज को सुधार और बदलाव की शक्तियों का अखाड़ा बना दिया था जिसमें मजदूर संघों और चार्टरवादी समूहों से लेकर ऐसे गुट सक्रिय थे जो आधुनिक समाज की जगह प्राक्-आधुनिक सामुदायिकतावाद की वकालत कर रहे थे।

मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक समाजवाद का विचार सामाजिक और राजनीतिक उथलपुथल की इसी पृष्ठभूमि में विकसित हुआ था। मार्क्स ने सैं-सिमों, फ़ूरिए और ओवेन के विचारों से प्रेरणा तो ली, लेकिन अपने ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद के मुकाबले उनके समाजवाद को ‘काल्पनिक’ घोषित कर दिया। इन पूर्ववर्ती चिंतकों की तरह मार्क्स समाजवाद को कोई ऐसा आदर्श नहीं मानते कि उसका स्पष्ट ख़ाका खींचा जाए। मार्क्स और एंगेल्स समाजवाद को किसी स्वयं-भू सिद्धांत के बजाय पूँजीवाद की कार्यप्रणाली से उत्पन्न होने वाली स्थिति के रूप में देखते हैं। उनका मानना था कि समाजवाद का कोई भी रूप ऐतिहासिक प्रक्रिया से ही उभरेगा। इस समझ के चलते मार्क्स और एंगेल्स को समाजवाद की विस्तृत व्याख्या करने या उसे परिभाषित करने से भी गुरेज़ था। उनके लिए समाजवाद मुख्यतः पूँजीवाद के नकार में खड़ा प्रत्यय था जिसे एक लम्बी क्रांतिकारी प्रक्रिया के ज़रिये अपनी पहचान ख़ुद गढ़नी थी। समाजवाद के विषय में मार्क्स की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना 'क्रिटीक ऑफ़ द गोथा प्रोग्रैम' है जिसमें उन्होंने समाजवाद को साम्यवादी समाज के दो चरणों की मध्यवर्ती अवस्था के तौर पर व्याख्यायित किया है।

गौरतलब है कि मार्क्स की इस रचना का प्रकाशन उनकी मृत्यु के आठ साल बाद हुआ था। तब तक मार्क्सवादी सिद्धांतों में इसे ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था। इस विमर्श को मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में शामिल करने का श्रेय लेनिन को जाता है, जिन्होंने अपनी कृति 'स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन' में मार्क्स के हवाले से समाजवाद को साम्यवादी समाज की रचना में पहला या निम्नतर चरण बताया। लेनिन के बाद समाजवाद मार्क्सवादी शब्दावली में इस तरह विन्यस्त हो गया कि कोई भी व्यक्ति या दल किसी ख़ास वैचारिक दिक्कत के बिना ख़ुद को समाजवादी या साम्यवादी कह सकता था। इस विमर्श की विभाजक रेखा इस बात से तय होती थी कि किसी दल या व्यक्ति के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों का तात्कालिक और दूरगामी लक्ष्य क्या है। यानी अगर कोई ख़ुद को समाजवादी कहता था तो इसका मतलब यह होता था कि वह साम्यवादी समाज की रचना के पहले चरण पर जोर देता है। यही वजह है कि कई समाजवादी देशों में शासन करने वाले दल जब ख़ुद को कम्युनिस्ट घोषित करते थे तो इसे असंगत नहीं माना जाता था।

बीसवीं शताब्दी में समाजवाद का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार तथा सोवियत शासन व्यवस्था एक तरह से सहवर्ती परिघटनाएँ मानी जाती हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसने समाजवाद के विचार और उसके भविष्य को गहराई से प्रभावित किया है। उदाहरणार्थ, क्रांति के बाद सोवियत संघ उसके समर्थकों और आलोचकों, दोनों के लिए समाजवाद का पर्याय बन गया। सोवियत समर्थकों की दलील यह थी कि उत्पादन के प्रमुख साधनों के समाजीकरण, बाज़ार को केंद्रीकृत नियोजन के मातहत करने, तथा विदेश व्यापार व घरेलू वित्त पर राज्य के नियंत्रण जैसे उपाय अपनाने से सोवियत संघ बहुत कम अवधि में एक औद्योगिक देश बन गया। जबकि उसके आलोचकों का कहना था कि यह एक प्रचारित छवि थी क्योंकि विराट नौकरशाही, राजनीतिक दमन, असमानता तथा लोकतंत्र की अनदेखी स्वयं ही समाजवाद के आदर्श को खारिज करने के लिए काफी थी। समाजवाद के प्रसार में सोवियत संघ की दूसरी भूमिका एक संगठनकर्ता की थी। समाजवादी क्रांति के प्रसार के लिए कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसे संगठन की स्थापना करके उसने ख़ुद को समाजवाद का हरावल सिद्ध किया। इस संगठन ने विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियों का लम्बे समय तक दिशा-निर्देशन किया। सोवियत संघ की भूमिका का तीसरा पहलू यह था कि उसने पूर्वी युरोप में कई हमशक्ल शासन व्यवस्थाएँ कायम की। अंततः सोवियत संघ समाजवाद की प्रयोगशाला इसलिए भी माना गया क्योंकि रूसी क्रांति के बाद स्तालिन के नेतृत्व में यह सिद्धांत प्रचारित किया गया कि समाजवादी क्रांति का अन्य देशों में प्रसार करने से पहले उसे एक ही देश में मजबूत किया जाना चाहिए। कई विद्वानों की दृष्टि में यह एक ऐसा सूत्रीकरण था जिसने राष्ट्रीय समाजवाद की कई किस्मों के उभार को वैधता दिलायी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुई वि-उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के दौरान समाजवाद और राष्ट्रवाद का यह संश्रय तीसरी दुनिया के देशों में समाजवाद के विकास का एक प्रारूप सा बन गया। चीन, वियतनाम तथा क्यूबा जैसे देशों में समाजवाद के प्रसार की यह एक केंद्रीय प्रवृत्ति थी।

सोवियत समर्थित समाजवाद के अलावा उसका एक अन्य रूप भी है जिसने पूँजीवादी देशों को अप्रत्यक्ष ढंग से प्रभावित किया है। मसलन, समाजवाद के तर्क और उसके आकर्षण को प्रति-संतुलित करने के लिए पश्चिम के पूँजीवादी देशों को अपनी अर्थव्यवस्था के साँचे को बदल कर उसे कल्याणकारी रूप देना पड़ा। इस संदर्भ में स्कैंडेनेवियाई देशों, पश्चिमी युरोप तथा आस्ट्रेलेशिया क्षेत्र के देशों में कींस के लोकोपकारी विचारों से प्रेरित होकर सोवियत तर्ज़ के समाजवाद का विकल्प गढ़ने का प्रयास किया गया। माँग के प्रबंधन, आर्थिक राष्ट्रवाद, रोजगार की गारंटी, तथा सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र को मुनाफाखोरी की प्रवृत्तियों से मुक्त रखने की नीति पर टिके इन कल्याणकारी उपायों ने एकबारगी पूँजीवाद और समाजवाद के अंतर को ही धुँधला कर दिया था। राज्य के इस कल्याणकारी मॉडल को एक समय पूँजीवाद की विसंगतियों— बेकारी, बेरोज़गारी, अभाव, अज्ञान आदि का स्थाई इलाज बताया जा रहा था। इस मॉडल की आर्थिक और राजनीतिक कामयाबी का सुबूत इस बात को माना जा सकता है कि अगर वामपंथी दायरों में इन उपायों की प्रशंसा की गयी तो दक्षिणपंथी राजनीति भी उनका खुला विरोध नहीं कर सकी। दूसरे विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद तीन दशकों तक बाज़ार केंद्रित समाजवाद का यह मॉडल काफी प्रभावशाली ढंग से काम करता रहा।

लेकिन सातवें दशक में मंदी और मुद्रास्फीति की दोहरी मार तथा कल्याणकारी पूँजीवाद के गढ़ में बढ़ते सामाजिक और औद्योगिक असंतोष के कारण इस मॉडल के औचित्य को लेकर सवाल खड़े होने लगे। मार्क्सवादी शिविर के विद्वान भी लगातार यह कहते आ रहे थे कि कल्याणकारी भंगिमाओं ने असमानता और शोषण को खत्म करने के बजाय पूँजीवाद को ही मजबूत किया है। इस मॉडल का एक आपत्तिजनक पहलू यह भी प्रकट हुआ कि कामगार वर्ग को जीवन की बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने वाली मशीनरी के द्वारा राज्य उस पर नियंत्रण करने की स्थिति में आ गया।

बाजार को कायम रखते हुए समाजवाद के कुछ तत्त्वों पर अमल करने वाले इस मॉडल का नव-उदारतावादी बुद्धिजीवी शुरू से ही विरोध करते आये थे। सातवें दशक में यह वर्ग जोर-शोर से कहने लगा था कि समाजवाद न केवल अर्थव्यवस्था को जड़ (निर्जीव) बना देता है बल्कि व्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन लेता है। नवें दशक में जब सोवियत संघ के साथ पूर्वी युरोप की समाजवादी व्यवस्थाएँ एक के बाद एक ढहने लगी तो समाजवाद की इस आलोचना को व्यापक वैधता मिलने लगी और समाजवाद के साथ इतिहास के अंत की भी बातें की जाने लगी। विजय के उन्माद में उदारवादी बुद्धिजीवियों ने यह भी कहा कि मनुष्यता के लिए पूँजीवाद ही एकमात्र विकल्प है लिहाजा अब उसके विकल्प की बात भूलकर केवल यह सोचा जाना चाहिए कि पूँजीवाद की कोई और शक्ल क्या हो सकती है।

भारत में समाजवाद : भारत में समाजवाद औपनिवेशिक ब्रिटिश राज के खिलाफ व्यापक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक हिस्से के रूप में, 20 वीं शताब्दी के आरंभ में स्थापित एक राजनीतिक आंदोलन है। यह तेजी से लोकप्रियता में बढ़ गया क्योंकि यह भारत के किसानों और मजदूरों के कारणों को ज़मीनदारों, रियासतों और उतरा सज्जनों के खिलाफ प्रेरित करता था। समाजवाद ने स्वतंत्रता के बाद 1990 के दशक तक स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार की सिद्धांतिक आर्थिक और सामाजिक नीतियों को आकार दिया, जब भारत एक और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ गया। हालांकि, इसका भारतीय राजनीति पर एक प्रभावशाली प्रभाव बना हुआ है, जिसमें बड़ी संख्या में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दल लोकतांत्रिक समाजवाद का समर्थन करते हैं।

भारतवर्ष में आधुनिक काल के प्रथम प्रमुख समाजवादी महात्मा गांधी हैं, परंतु उनका समाजवाद एक विशेष प्रकार का है। गांधी जी के विचारों पर हिंदूजैनईसाई आदि धर्म और रस्किनटाल्सटाय और थोरो जैसे दार्शनिकों का प्रभाव स्पष्ट है। वे औद्योगीकरण के विरोधी थे क्योंकि वे उसको आर्थिक समानता, शोषण, बेकारी, राजनीतिक तानाशाही आदि का कारण समझते थे। मोक्षप्राप्ति के इच्छुक महात्मा गांधी इंद्रियों और इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर त्याग द्वारा एक प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता स्थापित करना चाहते थे जो हो न सका। प्राचीन भारत के स्वतंत्र और स्वपर्याप्त ग्रामीण गणराज्य गांधी जी के आदर्श थे। ध्येय की प्राप्ति के लिए गांधी जी नैतिक साधनों - सत्य, अंहिसा, सत्याग्रह - पर जोर देते हैं हिंसात्मक क्रांति पर नहीं। गाँधी जी प्रेम द्वारा शत्रु का हृदयपरिवर्तन करना चाहते थे, हिंसा और द्वेष द्वारा उसका विनाश नहीं। गांधीवाद धार्मिक अराजकतावाद है। इस समय विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण गांधीवाद की व्याख्या और उसका प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने श्रम, भू, ग्राम, संपत्ति आदि के दान द्वारा अहिंसात्मक ढंग से समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का प्रयत्न किया है।

भारतीय समाजवादी विचारधारा के अनुसार नि:स्वार्थ सेवा, त्याग और आध्यात्मिक प्रवृत्ति - इनमें शोषक और शोषित के लिए कोई स्थान नहीं। यदि किसी के पास कोई संपत्ति है तो वह समाज की धरोहर मात्र है, देखा जाये तो इसके अनुसार सभी लोग एक समान स्थिति में होने चाहिए। सबके लिए समानता। किन्तु इस स्थिति में जब कि सभी एक समान हैं कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्य को करना ही नहीं चाहेगा और समाज में अराजकता फ़ैल जाएगी, अतः यह विचारधारा एक विचारधारा के रूप में ही ठीक हो सकती है।


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रूसी क्रांति के साथ भारत में समाजवादी आंदोलन विकसित होना शुरू हुआ।हालांकि, 1871 में कलकत्ता के एक समूह ने प्रथम अंतर्राष्ट्रीय के भारतीय खंड का आयोजन करने के उद्देश्य से कार्ल मार्क्स से संपर्क किया था। यह भौतिक नहीं था। [1] भारतीय प्रकाशन (अंग्रेजी में) में पहला लेख जो मार्च 1912 में आधुनिक समीक्षा में मुद्रित मार्क्स और एंजल्स के नामों का उल्लेख करता है। कार्ल मार्क्स नामक लघु जीवनी लेख - एक आधुनिक ऋषि जर्मन आधारित भारतीय द्वारा लिखा गया था क्रांतिकारी लाला हर दयाल। [2] 1914 में आर राम कृष्ण पिल्लई ने भारतीय भाषा में कार्ल मार्क्स की पहली जीवनी लिखी थी। [3]

रूसी क्रांति के समय मार्क्सवाद ने भारतीय मीडिया में एक बड़ा प्रभाव डाला। कई भारतीय कागजात और पत्रिकाओं के लिए विशेष रुचि सभी देशों के आत्मनिर्भरता के अधिकार की बोल्शेविक नीति थी। विपिनचंद्र पाल और बाल गंगाधर तिलक उन प्रमुख भारतीयों में से थे जिन्होंने रूस में लेनिन और नए शासकों की प्रशंसा व्यक्त की। अब्दुल सतरार खैरी और अब्दुल जब्बर खैरी क्रांति के बारे में सुनकर तुरंत मास्को गए। मॉस्को में, वे लेनिन से मिले और उन्हें बधाई दी। रूसी क्रांति ने भारतीय क्रांतिकारियों जैसे उत्तरी अमेरिका में गदर पार्टी को भी प्रभावित किया। [2]

भारत में समाजवाद का इतिहाससंपादित करें

रूस में अक्टूबर क्रांति के बाद भारत में छोटे समाजवादी क्रांतिकारी समूह उभरे। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1921 में हुई थी, लेकिन विचारधारा के रूप में समाजवाद ने राष्ट्रवादी नेताओं जैसे जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस द्वारा अनुमोदित होने के बाद राष्ट्रव्यापी अपील की। कट्टरपंथी समाजवादी ब्रिटेन में पूरी तरह से भारतीय आजादी के लिए बुलाए जाने वाले पहले व्यक्ति थे। नेहरू के तहत, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने 1936 में सामाजिक-आर्थिक नीतियों के लिए समाजवाद को एक विचारधारा के रूप में अपनाया। कट्टरपंथी समाजवादियों और कम्युनिस्टों ने बंगाल में किसानों के उभरे हुए सज्जनों के खिलाफ तेभागा आंदोलन को भी इंजीनियर बनाया। हालांकि, मुख्यधारा के भारतीय समाजवाद ने खुद को गांधीवाद के साथ जोड़ा और वर्ग युद्ध के बजाय शांतिपूर्ण संघर्ष अपनाया।

स्वतंत्रता आंदोलन में समाजवादसंपादित करें

औपनिवेशिक स्वाधीनता आंदोलन के संबंध में मानवेंद्रनाथ राय के अपने विचार थे। उनका मत था कि भावी समाजवादी क्रांति में औपनिवेशिक क्रांतियों का प्रमुख स्थान होगा। चीनी साम्यवादियों का भी आज यही मत है, परंतु सोवियत विचारकों ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया। राय की यह भी धारणा थी कि औपनिवेशिक पूँजीवाद ने साम्राज्यशाही से गठबंधन कर लिया है अत: वह प्रतिक्रियावादी है और क्रांतिकारी दल उसके साथ संयुक्त मोर्चा नहीं बना सकते। यद्यपि साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय ने इस विचार को भी स्वीकार नहीं किया, तथापि भारतीय साम्यवादियों ने अधिकांशत: इस नीति का अनुसरण किया और बहुधा राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग रहे।

बोल्शेविक क्रांति के बाद शीघ्र ही भारत के बड़े नगरों में साम्यवादियों के स्वतंत्र संगठन बने, एक किसान मजदूर पार्टी की स्थापना हुई और सन् 1924 तक एक अखिल भारतीय साम्यवादी दल का संगठन भी हुआ, परंतु यह दल शीघ्र ही अवैध घोषित कर दिया गया। इसके बाद सन् 1936 से इसकी शक्ति बढ़ी और इस समय यह भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों में से है।

दूसरा समाजवादी दल कांग्रेस समाजवादी पार्टी थी। इसकी स्थापना सन् 1934 में हुई। भारतीय समाजवादी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, आदि नेता प्रथम महायुद्ध के बाद से ही समाजवाद का प्रचार कर रहे थे। परंतु भद्र अवज्ञा आंदोलन (1930-33) की असफलता और सन् 1929 के आर्थिक संकट के समय पूँजीवादी देशों की दुर्गति तथा इन देशों में फासिजम की विजय और दूसरी ओर सोवियत देश की आर्थिक संकट से मुक्ति तथा उसकी सफलता, इन सब कारणों से अनेक राष्ट्रभक्त समाजवाद की ओर आकर्षित हुए। इनमें जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्रदेव, मीनू मसानी, डॉ॰ राममनोहर लोहिया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता उल्लेखनीय हैं। इनका उद्देश्य कांग्रेसी मंच द्वारा समाजवादी ढंग से स्वराज्यप्राप्ति और उसके बाद समाजवाद की स्थापना था।

स्वतंत्रता मिलने के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय शक्तियों का संयुक्त मोर्चा न रहकर एक राजनीतिक दल बन गई, अत: अन्य स्वायत्त और संगठित दलों को कांग्रेस से निकलना पड़ा। इनमें कांग्रेस समाजवादी दल भी था। उसने कांग्रेस शब्द को अपने नाम से हटा दिया। बाद में आचार्य कृपालानी द्वारा संगठित कृषक मजदूर प्रजापार्टी इसमें मिल गई और इसका नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी हो गया, परंतु डाक्टर राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी दल का एक अंग इससे अलग हो गया और उसने एक समाजवादी पार्टी बना ली। इस समय प्रजा सोशलिस्ट और सोशलिस्ट पार्टी ने मिलकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी बनाई। किंतु संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के वाराणसी अधिवेशन (1965) में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने अलग होकर पुन: अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लिया। उसी समय अशोक मेहता के नेतृत्व में कुछ प्रजा सोशलिस्ट कार्यकर्ता कांग्रेस में शमिल हो गए हैं। द्वितीय महायुद्ध के बाद वह समाजवादी विचारधारा सोवियत तानाशाही का विरोध करती है तथा अपने को पाश्चात्य देशों के लोकतंत्रात्मक और विकासवादी समाजवाद के निकट पाती है।

समय समय पर समाजवादी विचारों को स्वीकार करनेवाले कई और दल भी भारत में रहे हैं। साम्यवादी अंतरराष्ट्रीय से संबंध विच्छेद के बाद एम. एन. राय के समर्थक भारतीय साम्यवादी दल से अलग हो गए। भारतीय बोल्शेविक पार्टी, सुभाषचंद्र बोस का फार्वर्ड ब्लाक और क्रांतिकारी समाजवादी दल भी समाजवादी हैं। कुछ ऐसे समाजवादी दल भी हैं जिनका प्रभाव केवल कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा है जैसे महाराष्ट्र क्षेत्रों की किसान मजदूर पार्टी।

स्वराज्यप्राप्ति के बाद भारतीय कांग्रेस ने स्पष्ट रूप से समाजवाद को स्वीकार किया है। उसके पूर्व वह समाजवादी और उसकी विरोधी सभी राष्ट्रीय विचारधाराओं का एक संयुक्त मोर्चा थी, परंतु उस समय भी वह समाजवादी विचारों से प्रभावित थी। एक प्रकार से उसने कराची प्रस्ताव (1931) में कल्याणकारी राज्य का आदर्श स्वीकार किया था, कांग्रेस मंत्रिमंडलों (1937) के बनने के बाद (सुभाषचंद्रबोस की अध्यक्षता में) एक योजना समिति की नियुक्ति की गई थी; और स्वराज्यप्राप्ति के बाद तुरंत ही वर्गविहीन समाज का विचार सामने आ गया। स्वराज्य के बाद यद्यपि संगठित समाजवादी दल कांग्रेस से अलग हो गए, तथापि उसके अंदर समाजवादी तत्व, विशेषकर उसके सर्वप्रमुख नेता जवाहरलाल नेहरू, प्रभावशील रहे, अत: कांग्रेस के आवढी अधिवेशन (1957) में "समाजवादी ढंग का समाज" और भुवनेश्वर अधिवेशन (1964) में लोकतंत्रात्मक समाजवाद का लक्ष्य स्वीकार किया गया। उसका नियोजित अर्थव्यवस्था, समाजसुधार, कल्याण राज्य और लोकतंत्र में विश्वास है और उसकी परराष्ट्र की नीति पाश्चात्य तथा पूर्वी गुटों के शक्ति संघर्ष से अलग रहकर शांति की शक्तियों को मजबूत करने की है।

समाजवाद और खिलाफत आंदोलनसंपादित करें

खिलाफत आंदोलन ने प्रारंभिक भारतीय साम्यवाद के उद्भव में योगदान दिया। कई भारतीय मुसलमानों ने खलीफा की रक्षा में शामिल होने के लिए भारत छोड़ दिया। सोवियत क्षेत्र में जाने के दौरान उनमें से कई कम्युनिस्ट बन गए। कुछ हिंदू सोवियत क्षेत्रों की यात्रा में मुस्लिम मुहाजिरों में भी शामिल हो गए। [4]

भारत में बोल्शेविक सहानुभूति के बढ़ते प्रभाव से औपनिवेशिक अधिकारियों को स्पष्ट रूप से परेशान किया गया था। मुसलमानों को साम्यवाद को अस्वीकार करने का आग्रह करते हुए एक पहला काउंटर-कदम एक फतवा जारी करना था। गृह विभाग ने कम्युनिस्ट प्रभाव की निगरानी के लिए एक विशेष शाखा की स्थापना की। सीमा शुल्क को भारत में मार्क्सवादी साहित्य के आयात की जांच करने का आदेश दिया गया था। बड़ी संख्या में विरोधी कम्युनिस्ट प्रचार प्रकाशन प्रकाशित किए गए थे। [5]

प्रथम विश्व युद्ध के साथ भारत में उद्योगों की तेजी से वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप औद्योगिक सर्वहारा की वृद्धि हुई। साथ ही आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हुई। ये कारक थे जो भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन के निर्माण में योगदान देते थे। पूरे भारत में शहरी केंद्रों में यूनियनों का गठन किया गया था, और हमलों का आयोजन किया गया था। 1920 में, ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई थी। [6]

रूस में विकास के साथ प्रभावित एक भारतीय बॉम्बे में एसए डांगे था। 1921 में, उन्होंने गांधी बनाम एक पुस्तिका प्रकाशित की । लेनिन , लेनिन के साथ दोनों नेताओं के दृष्टिकोण के तुलनात्मक अध्ययन दोनों के बेहतर के रूप में बाहर आ रहे हैं। स्थानीय मिल मालिक, रांचीदादास भवन लोटवाला के साथ मिलकर, मार्क्सवादी साहित्य की एक पुस्तकालय स्थापित की गई और मार्क्सवादी क्लासिक्स के अनुवादों का प्रकाशन शुरू हुआ। [7] 1922 में, लोटवाला की मदद से, डांग ने अंग्रेजी साप्ताहिक, सोशलिस्ट , पहला भारतीय मार्क्सवादी पत्रिका लॉन्च किया। [8]

उपनिवेशवादी दुनिया में राजनीतिक स्थिति के बारे में, 1920 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने जोर देकर कहा कि उपनिवेशवादी देशों में सर्वहारा, किसान और राष्ट्रीय पूंजीपति के बीच एक संयुक्त मोर्चा बनना चाहिए। कांग्रेस से पहले लेनिन द्वारा तैयार की गई बीस स्थितियों में से 11 वीं थीसिस थी, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को उपनिवेशों में बुर्जुआ-लोकतांत्रिक मुक्ति आंदोलनों का समर्थन करना चाहिए। कुछ प्रतिनिधियों ने बुर्जुआ के साथ गठबंधन के विचार का विरोध किया, और इसके बजाय इन देशों के कम्युनिस्ट आंदोलनों को समर्थन दिया। उनकी आलोचना भारतीय क्रांतिकारी एमएन रॉय ने साझा की थी, जिन्होंने मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया था। कांग्रेस ने 8 वीं हालत बनने में 'बुर्जुआ-लोकतांत्रिक' शब्द को हटा दिया। [9]

भारत में समाजवाद और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टीसंपादित करें

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्टूबर 1920 को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस के तुरंत बाद ताशकंद में हुई थी। पार्टी के संस्थापक सदस्य एमएन रॉय, एवलिना ट्रेंच रॉय (रॉय की पत्नी), अब्नी मुखर्जी, रोसा फिटिंगोफ (अब्नी की पत्नी), मोहम्मद अली (अहमद हसन), मोहम्मद शफीक सिद्दीकी और एमपीबीटी आचार्य थे। [10][11]

सीपीआई ने भारत के अंदर एक पार्टी संगठन बनाने के प्रयास शुरू किए। रॉय ने बंगाल में अनुष्लन और जुगांटर समूहों के साथ संपर्क बनाए। बंगाल (मुजफ्फर अहमद के नेतृत्व में), बॉम्बे (एसए डांगे के नेतृत्व में), मद्रास ( सिंगरवेलू चेतियार के नेतृत्व में), संयुक्त प्रांत ( शौकत उस्मानी के नेतृत्व में) और पंजाब (गुलाम हुसैन के नेतृत्व में) में छोटे कम्युनिस्ट समूह बनाए गए थे। हालांकि, केवल उस्मानी एक सीपीआई पार्टी सदस्य बन गए।

1 मई 1923 को सिंगरवेलू चेतेयार द्वारा मद्रास में हिंदुस्तान की श्रम किसान पार्टी की स्थापना की गई थी। एलकेपीएच ने भारत में पहला मई दिवस समारोह आयोजित किया, और यह पहली बार भारत में लाल झंडा का भी इस्तेमाल किया गया था। [12][13][14]


25 दिसंबर 1925 को कानपुर में एक कम्युनिस्ट सम्मेलन आयोजित किया गया था। औपनिवेशिक अधिकारियों का अनुमान है कि सम्मेलन में 500 लोगों ने हिस्सा लिया था। इस सम्मेलन को सत्याभाता नामक एक व्यक्ति द्वारा बुलाया गया था, जिनमें से बहुत कम ज्ञात है। कहा जाता है कि सत्याभाता ने 'राष्ट्रीय साम्यवाद' और कम्युनिटी के अधीन अधीनता के खिलाफ तर्क दिया था। अन्य प्रतिनिधियों द्वारा बहिष्कृत होने के कारण, सत्याभाता ने विरोध में सम्मेलन स्थल दोनों को छोड़ दिया। सम्मेलन ने 'कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया' नाम अपनाया। एलकेपीएच जैसे समूह एकीकृत सीपीआई में भंग हो गए। एमिग्री सीपीआई, जो कि शायद थोड़ा कार्बनिक चरित्र था, अब संगठन के द्वारा प्रभावी ढंग से प्रतिस्थापित किया गया था जो अब भारत के अंदर काम कर रहा है।



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