दुनिया भर की किताबें रट लेने से हम विद्वान नहीं हो जाते।परम्परा गत समाज में ये अच्छा हो सकता है। महत्वपूर्ण है कि हमारा चिंतन मनन, नजरिया,स्वप्न, कल्पना क्या है?आस्था क्या है?किताबों से जो रट कर हम कहते फिर रहे हैं, जरूरी नहीं वह हमारा चिन्तन मनन, नजरिया, आस्था, स्वप्न, कल्पना आदि हो?
शोध करने वाले, डिग्री कालेज के प्रोफेसर आदि सेमिनार में पढ़ पढ़ कर अपना लेख पढ़ते हैं?उन्हें क्या पता?पढ़ पढ़ कर पड़ते है?
आप क्या जानो? चिंतन मनन,नजरिया, स्वप्न, कल्पना में जिसे जिया जा रहा है वह व्यक्ति की असलियत होकर भी बाहर उजागर होने की कैसी कला ?!
हमें व्यवहारी रुप से कार्य करना मुश्किल होता है जो आप जगत में जीते हैं उनके पास कामकाजी बुद्धि का अभाव होता हैै इसको अनेक मनोवैज्ञानिक कर चुके हैं हम चिंतन मनन अन्वेषण लेखन कर सकते हैं लेकिन उसके आधार पर व्यवहार करना मुश्किल होता है क्योंकि समाज संस्थाएं पूरा सिस्टम कुछ और ही चाहताा है
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