सामने वाले को उसी के आधार पर समझो तुलना उचित नहीं ।सामने वाला व्यक्ति जिस स्तर का उस स्तर से उठाने का वातावरण तैयार करो।
एक उपदेशक थे ।
उनसे किसी ने पूछा महावीर बड़े थे कि बुद्ध बड़े थे।
उस संत ने कहा यदि आप जान भी गए कि बुद्ध बड़ेे हैं या जैन तो क्या आपके चेतना का स्तर आपकी समझ वर्तमान स्तर से ऊपर उठ जाएगी याआगे बढ़ जाएगी या अनंत से जुड़ जाएगी या फिर तुम बुुद्ध या जैन के स्तर पर हो जाएंगे?
मिठाई को मिठाई के आधार पर ही समझो।खटाई को खटाई के आधार पर ही समझो। सामने जो है, सो है।उसे उसके आधार पर ही समझो। सुनने को मिल तो जाता है कि किसी के माथे पर क्या लिखा है कौन चोर है कौन साहूकार?और फिर दूसरी ओर दूसरे का चरित्र प्रमाण पत्र लिए फिरते हो। आप गाँधी और भगतसिंह को अलग अलग रास्ते का समझते होंगे लेकिन हम नहीं। भगतसिंह ने यथार्थ वाद को स्वीकार किया।यथार्थ की आवश्यकताओं के प्रबंधन को ही जिया। यथार्थ व सत्य को हम एक ही मानते हैं।उसके तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण।उन्होंने आपके ईश्वरवाद को भी अस्वीकार कर दिया।अपने दिल से पूछो आप ईश्वर से प्रेम करते हैं कि अपने हाड़ मास शरीर व इन्द्रियों,इच्छओं के लिए जीते हो?परिवार व बच्चों की परवरिश का भी सिर्फ बहाना होता है,मन की गहराई में कहीं अपनी इच्छाएं ही होती हैं।न कि शरणागति , समर्पण न ही तटस्थता।जो कि गीता आदि ग्रन्थों में बताई गई है।
भिक्षुक आनंद अपने गुरु महात्मा बुद्ध से पूंछता है-क्या बात महात्मन?एक दिन आपने एक व्यक्ति के प्रश्न के उत्तर में कह दिया-हां, हो सकता है।आज उससे उल्टा प्रश्न एक व्यक्ति ने पूछा तो फिर आपने कहा दिया कि हां, हो सकता है। क्या चक्कर?
अनन्त !आपने क्या महसूस नहीं किया कि पहले व्यक्ति को भी ईश्वर के होने या न होने से कोई मतलब न था और दूसरे को भी।
हालांकि पहला अपने को नास्तिक दूसरा अपने को आस्तिक जता रहा था। दोनों तटस्थ नहीं थे, समर्पण में, शरणागति में नहीं थे।दोनों संसार में ही लिप्त थे।लोभ लालच में थे।
हमारा अनेक लोगों से सामना होता है, जो हम लिखते हैं उसके प्रति न तटस्थ होते न शरणागति, समर्पण।वे पहले से उस के प्रति मन में खिलाफत या हमारे विरोध में खड़े होते हैं।
किसी ने कहा है- ईमानदार श्रोता बनो, ईमानदार दृष्टा बनो।तभी यथार्थ को समझ सकते हो।सत्य को समझ सकते हो।और फिर समझना ही काफी नहीं है।महसूस करना भी आबश्यक है। यथार्थ भी सत्य भी अनेक स्तरीय होता है।आप पहले से ही कोई अपना एक नजरिया पाले हो,तो कैसे समझोगे उसे जो है।हरा चश्मा वाले को हरा हरा ,लाल रंग के चश्मा वाले को लाल लाल दिखाई देगा।आपकी चेतना व समझ जिस बिंदु/जिस स्तर पर है, उसी स्तर का दिखाई देगा।जो आधा गिलास खाली ही देख पाता है, उसे आधा गिलास भरा कैसे दिखाई देगा?और फिर इस आधा-आधा के पीछे भी परिस्थितियां व कारण अलग अलग होते हैं। हम अनेक बार महसूस किये हैं- तीनों काल में समाज ,संस्थाओं , धर्म के ठेकेदारों के द्वारा यथार्थ/सत्य आदि को समझा न गया जो वो था।और भविष्य में वे नायक से खलनायक बन गए। आज कल भी ऐसा हो रहा है, परिवार, पास पड़ोस, संस्थाओं, समाज में जो नायक हैं, ठेकेदार है वे भविष्य में खलनायक होने वाले हैं। ऐसा राष्ट्र व विश्व स्तर पर भी है। क्योंकि आज हम जिस स्तर/बिंदु पर अपनी चेतना व समझ को उलझाए हुए हैं, उससे ऊपर भी अनेक स्तर/बिंदु हैं, अनन्त स्तर/बिंदु हैं। पूर्णता नहीं, विकसित नहीं.....वरना विकासशील, निरन्तरता..... हर बिंदु/स्तर पर सुधार की गुंजाइश। इस लिए हम सन्त परम्परा को स्वीकर करते हैं।वह अंगुलिमानों की गलियों से नफरत नहीं करता न ही दण्ड व पुरस्कार की लालसा रखता है।वरन सबका साथ सबका सम्मान।हर अपराध का विरोध,चाहे वह अपने अंदर हो या बाहर।अपने घर हो या दूसरे घर। अपनी जाति में हो या दूसरी जाति में..... सन्तों ने विरोध की शुरुआत अपने से बताई है।अपने घर, अपने संस्था से बताई है।वह विश्वास घात नहीं है। आज कल धर्म व दूसरों को सुधारने के ठेकेदार ही दूसरों की बुराइयों के ठेकेदार ही अपनी किसी बुराई के विरोध पर सुलग जाते हैं।
हम ऐसा भी देखते हैं परिवार, पासपड़ोस, संस्थाओं आदि में कुछ लोग सिर्फ हॉबी रहते हैं।दूसरे को शांति से सुनना नहीं चाहते पहले।
हम जब विद्याभारती,सेवा भारती में थे तो हमने देखा कि समूह ,संस्था के हर व्यक्ति के न्यूनतम क्षमता, कार्यक्रम,कार्य क्षेत्र, न्युनतम लक्ष्य को टारगेट किया जाता था।प्रत्येक क्लास के विद्यार्थी ने न्यूनतम लक्ष्य को भी टारगेट किया जाता था।अधिकतम की तो कोई सीमा ही नहीं।इसलिए तुलना भी ठीक नहीं।सबका अपना अपना स्तर.....
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