मंगलवार, 29 मार्च 2011

.......तो असामाजिक ही सही !

संवेदनाएं खत्म हो रही हैं,सेवा भाव खत्म हो रहा है लेकिन तब भी लोगों के मुख से सामाजिकता की बात हो रही है.व्यक्ति व्यक्ति के बीच धन,बदले का व्यवहार,ऊंचनीच,पक्ष विपक्ष,आदि को देख कर व्यवहार कर सामाजिकता का जिक्र होता है.
दया करुणा, सहायता ,सेवा भाव
,आदि के कारण व्यक्ति से व्यवहार नहीं रखते.मै सामाजिकता के स्थान पर मानवता का प्रयोग करता आया हूँ."अरे,समाज के आधार पर चलना पड़ता है!"-यह कहने वाले लोग कायर ,अवसरवादी भेड़ चाली,आदि होते हैं.ऐसे लोगों के द्वारा मैने व्यक्तियों की वैसाखी तक तोड़ते देखा है.इनकी दृष्टि पर जिस रंग का चश्मा चढ़ा होता है,उस रंग का ही इन पर असर होता है.अन्य रंग के विरोध मे ही होते हैं यह.इस ब्लाग का शीर्षक 'सामाजिकता के दंश' मैने यों ही नहीं रख दिया था.इस शीर्षक मे मेरा दर्द छिपा हुआ है,जो कि मैँ बचपन से झेलता आया हूँ.लोग मुझे बुद्धिजीवी कह डालते हैं लेकिन मै तो अपने शरीर व मन के उपचार के लिए यह सब करता आया हूँ.रोगी भी अपना इलाज कराते कराते नुस्खों को जान जाता है.मै अपनी निशानियों के रुप में दुनिया में जो छोड़ जाऊंगा,वे वे नुस्खे हैं जिनके सहारे मै अपने को संवरता रहा हूँ.चेतना के प्रवाह ,मानवता से दूर नजर आती है सामाजिकता.आखिर ऐसा नजर क्यों न आये ?इंसान का भगवान, धर्म व प्रेम तक शरहदों में बंटा होता है.ऐसे मे सामाजिकता के नाम पर भी इंसान के व्यवहारों पर शरहदों का साया रहता है.
शाश्वत मूल्यों पर कृत्रिम शरहदों की कब तक चलेगी ?
"समाज को लेकर चलना पड़ता है''-कहने वाले क्या इंसानियत का दर्द कम करने में आगे आते हैं?द्वेष ,मतभेद,निज स्वार्थ,आदि से उबर क्या यह अपने सर्किल में आने वालों का भेदहीन होकर मदद करते हैं?हमारे एक सम्पर्क में थे,उन्होने चाहें अपनी पत्नी द्वारा नवदुर्गा व्रत में चाहें कन्यापूजन व उनको भोग मे मदद न की हो लेकिन पर गरीबों दलितों के बच्चों अपना रुपया व समय खर्च करते देखा है,उन्हें अपने जाति व अपने स्तर के लोगों के लड़के लड़कियों की शादी में मदद करते न देखा हो लेकिन गरीब अनाथ लड़के लड़कियो की शादी मे मदद करते अवश्य देखा है,ऐशो आराम व मनोरंजन की वस्तुएं अपने घर मेँ इकट्ठा करने वाले अपने रिश्तेदारों की उन्होने चाहे आर्थिक मदद न की हो लेकिन सादगी व उदारता मेँ जीवन जीने वालों की उन्होने आर्थिक मदद की है,उनका परिवार जिन्हें अपने अपोजिट मानता है आपत्तिकाल में उन्हें उनकी मदद करते देखा है,आदि लेकिन...परिवार व समाज में वे अलग थलग ही रहे.झूठी शान व दुनिया की चकाचौध में जीने वाले उन्हें पागल व सनकी समझते रहे,यहाँ तक कि उनकी पत्नी तक का नजरिया व व्यवहार उनके प्रति अच्छा न था.अपने अन्तिम समय मे उन्होने एक जो पुस्तक लिखी ,वह हिन्दी के प्रोफेसरों तक को बकवास लगी लेकिन उन शब्दों के पीछे छिपी भावनाओं को नहीं समझा गया.इंसानियत को महत्व देने वाले उनका सम्मान करते थे लेकिन....लेकिन जो यह कहते है कि समाज को लेकर चलना पड़ता है,उनके लिए वे अब भी पागल हैं क्योकि उन्होने कभी बदले की भावना से व्यवहार न किया और न ही सिर्फ अपने बराबर वालोँ में.उनमे सम्पूर्ण मानवता के प्रति समर्पण थे.वे जाति भेद,लिंग भेद ,परिचयवाद ,आदिसे मुक्त हो उदारभाव से सेवा कार्य मेँ लगे रहे.समाज व सामाजिकता की बात करने वाले सिर्फ उन पर अंगुलियाँ उठाते रहे.धन्य,आज की सामाजिकता.जब अभिभावकों को पता चलता है कि मैं बच्चों से कहता फिरता हूँ ,दो परिस्थितियां है तुम्हारे सामने एक समाज के आधार पर चलने का दूसरा महापुरुषों के आधार पर.तब अभिभावकों का चेहरा देखने वाला होता है.








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