एक कहावत है कि पैर उतने ही फैलाने चाहिए जितनी बड़ी चादर है लेकिन आज भौतिक युग मेँ भौतिकसंसाधनों की चकाचौंध मेँ आदमी खो गया है.जब व्यक्ति की क्षमताएं उन्हेँ प्राप्त करने मेँ अक्षम हो जाती है तो लालसाएं भ्रष्टाचार को जन्म देती हैं.लोग जैसे तैसे संसाधन पा लेना चाहते हैं.जीवन रुपी गाड़ी जब अध्यात्म व भौतिक रुपी दोनों पहियों पर बराबर बोझ लेकर चलेगी तभी भ्रष्टाचार मुक्त समाज की कल्पना की जा सकती है.नहीं तो कोरे निरे भौतिक भोगवाद मेँ भ्रष्टाचार फलता फूलता रहेगा.जब तक सांसारिक जगत व वस्तुओं से लगाव रहेगा,भ्रष्टाचार किसी न किसी रुप मेँ रहेगा.लोग अपने को धार्मिक व ईश भक्त मानते हैँ लेकिन धार्मिक व ईशभक्त हैँ नहीँ.अध्यात्मिकता तो दूर की बात.
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