थी.मैं कक्षा 6ए और अरविन्द मिश्रा कक्षा 6ब के लिए एडमीशन कर रहे थे.दो
प्रवेशार्थी दो बार प्रवेशपरीक्षा मेँ बैठने के बाबजूद प्रवेशपरीक्षा मेँ
पास नहीं हो पाये थे. एक ही सत्र मेँ एक ही क्लास के लिए दो बार परीक्षा
.....?दोनों के दोनों प्रवेशपरीक्षा मेँ कुल टोटल ही शून्य था.ऐसे मेँ
मैँ उन दोनों का एडमीशन कैसे ले सकता था?
विद्यालय मेँ दो अध्यापक ऐसे हैं जो कि सामाजिकता के ठेकेदार
बनते हैँ.सामाजिकता के बहाने वे पीछे के रास्ते से भ्रष्टाचार,
मनमानी,आदि करने से नहीं चूकते.एक कहते हैं कि हमें तो समाज मेँ अपनी बना
के चलना है.बड़ेगुरुजी(प्रधानाचार्य) ईमानदारी पर चलेँ,वे वस्ती जिले से
हैं रिटायर हो कर वस्ती मेँ चले जाएंगे.हमेँ तो यहीं रहना है.हम
सामाजिकता को नहीं नकार सकते.तो क्या सामाजिकता का मतलब ये है कि नियमों
को ताख मेँ रख दिया जाए?मैं ने सोँचा.मुझसे इस अध्यापक ने कहा कि आपको इन
दो बच्चों के एडमीशन करने हैं.मैं बोला कि मैं कैसे कर सकता हूं इनका
एडमीशन?ये तो शून्य अंक रखते हैँ.तब वे बोले कि यहां रहना है तो ये
एडमीशन करना ही होगा.मैं बोला कैसे करना ?मैं नहीं कर सकता क्यों न कालेज
छोंड़ना पड़ जाए?वे बोले कि देखो समाज को लेकर चलना पड़ता है. मैं बोल दिया
कि मैं समाज को लेकर नहीं चलना चाहता.मैं सामाजिकता मेँ नहीँ.मैं
महापुरुषों से सीख लेना चाहता हूँ.आप जैसे सामाजिकता की वकालत करने वालों
से नहीँ.
मैं बचपन से ही सामाजिकता के नाम पर झूठ ,फरेब ,अन्धविश्वास
,कूपमंडूकता ,आदि को ही वर्दाश्त करता आया था.मैँ महसूस कर रहा था कि
धर्म, अध्याम,सत,आदि परम्परागत समाज के अपोजिट है.
सनातन धर्म की यात्रा पथ के पथिक कितने हैं?जो हैं परम्परागत भीड़ से
अलग थलग हैं.रामकृष्ण परमहंस जैसे अपने जिन्दा रहते परम्परागत भीड़ मेँ
उपेक्षित होते हैँ. मैं भी परम्परागत भीड़ मेँ उपेक्षित क्यों हूँ?मैं
उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता.आखिर मैं किनकी उम्मीदों पर खरा
उतरुँ?महापुरुषों व ग्रन्थों के सार के आधार पर या फिर इन निरे भौतिक
भोगवादी व संकीर्ण लोगों की नजर मेँ?
सनातनधर्म यात्रा के समक्ष सामाजिकता के DANSH बन कर आते हैँ भीड़ मेँ
बेहतर बनने के तरीके.सनातन यात्रा का संवाहक कौन है?सनातन यात्रा के पथ
पर जैन, बुद्ध, यहूदी, पारसी ,ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख हो चलना तो समझ मेँ
आता है लेकिन हिन्दू होना नहीं.वह भी निरा सगुण हिन्दू की उम्मीदों के
आधार पर?सगुण निर्गुण के सम अस्तित्व(ब्रह्म व प्रकृति का समअस्तित्व)के
आधार पर ही मानव अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास सम्भव है.मेरे लिए
निर्गुण साधना का मतलब है अपने भाव,विचार,स्वपन, कल्पना,चिन्तन जगत में
मोह,लोभ,काम,आदि व ऋणात्मक सोंच के खिलाफ पल प्रति पल विद्रोह का प्रयत्न
करते रहना.ऋषियों ,मुनियों ,नबियों, आदि सनातन धर्म का तानाबाना बुनने
वालोँ के यात्रा को आगे बढ़ाने वाले प्रथम पथिक जिन अर्थात जैन नजर आते
हैँ.जिन का अर्थ है-'स्व को पाने वाले जो इन्द्रियों के विजेता'.फिर
बुद्ध.....प्रज्ञा को प्राप्त हुए.आगे मुस्लिम..अर्थात ईमान पर पक्के
....सिक्ख यानि कि शिष्य.....इन सब गुणों अर्थात जैन ,बुद्ध
,मुस्लिम,सिक्ख,आदि को समाहित कर ही आर्य हो सकते हैं.अब बात आती है
हिन्दू की ,आज के वैश्वीकरण में मुझे हिन्दू होने पर गर्व नहीं है
.भारतीय होने पर गर्व है.मेरी भारतीयता ही मेरा हिन्दुत्व है.डा ए पी जे
अब्दुल कलाम मेरी दृष्टि मेँ हिन्दुत्व मेँ है.
बुद्ध दर्शन मेरे लिए प्रयोगात्मक धर्म है.जो कि सनातन यात्रा पर आज भी
मुझे आकर्षित करता है.संत रैदास कहते हैं कि मन चंगा तो कठौती मेँ
गंगा.आज मन चंगा किसका है?मैँ ऊपर लिख चुका हूँ कि निर्गुण साधना का मतलब
है कि अपने भाव, विचार, चिन्तन, स्वपन, आदि जगत मेँ माया मोह लोभ के
खिलाफ विद्रोह मेँ पल प्रति पल रहना.मैं यहां पर एक वाक्य का और प्रयोग
करता हूँ कि मन का राजा बनना.हमारे विचार भाव स्वपन समृद्ध ही होना
चाहिए.माया लोभ काम क्रोध मेँ ही मन का बह जाना हमारी समृद्धता नहीं है.
कबीर अपने शिष्य धर्मदास से कहते हैं कि जगत मेँ मैं जो देने आया हूँ वह
हमसे कोई लेने ही नहीं आता. कबीर के इस कथन के जिक्र के बाद मैँ अब कहता
हूँ कि ऐसे जगत मेँ जगत की उम्मीदों पे खरा न उतरना पाप नहीं है.पाप है
सत्य को सत्य से मुकुरना.सत्य से मुकुरने वाला काफिर है.चाहेँ वह अपने
को मुसलमान ही क्यों न समझता हो.
सन 2011ई0 की पांच अगस्त!
दूसरे एक अध्यापक बड़े सामाजिक है.वे पाँच मिनट में ही पांच हजार व्यक्ति
इकठ्ठे कर सकते हैं लेकिन......?भीड़ किसके साथ होती है?भीड़ का कोई क्या
धर्म होता है?वह तो उन्माद व सम्प्रदायों मेँ होती है.धर्म के पथ पर
व्यक्ति अकेला होता है.अब कहोगे कि अन्ना के साथ क्या भीड़ नहीं थी?अन्ना
जिसको लेकर चल रहे वह क्या धर्म नहीँ?