सोमवार, 6 जुलाई 2020

विद्यार्थी जीवन जिसमें उलझा उससे निकलने की फोर्स कहाँ है::अशोकबिन्दु

विद्यार्थी जीवन जिसमें उलझा है,उससे उबरने के लिए उसके पास परिस्थितियां नहीं होती।

बच्चे घर में बड़ों के संग टीवी पर वे सीरियल देखते हैं, जो बच्चे को विद्यार्थियत्व में नहीं ले जाते।


और ऊपर से-"ये बड़ा आलसी है, इसकी शादी तो ऐसी लड़की से कराएंगे जो चौका बासन भी इससे भी कराए"-ऊपर से ऐसे कमेंट्स,या इसके समकक्ष अन्य कमेंट्स।

कुछ ऐसे वातावरण बन जाते हैं, बच्चों की समझ जिधर जानी चाहिए उधर नहीं जाती।हम उसके लिए परिवार का वातावरण, आस पड़ोस का वातावरण, स्कूल का वातावरण महत्वपूर्ण मानते हैं।उपदेश आदेश महत्वपूर्ण होते तो न जाने कब ये दुनिया में सब सुप्रबन्धन में होता।


वर्तमान का जो भी विद्यार्थी है, उसमें नब्बे प्रतिशत को हम विद्यार्थी ही नहीं मानते। हमने टॉपर व्यक्तियों को भी अपराधी रैंक, सामाजिक रैंक, मजहबी रैंक, भीड़ हिंसा रैंक, जातिवादी रैंक आदि में देखा है। वह आचरण से ज्ञान में नहीं होता, साहस से ज्ञान की ओर नहीं,मानवता की ओर नहीं, संवैधानिक वातावरण की ओर नहीं।

विद्यार्थियों ,किशोर किशोरियों, युवक युवतियों को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला उलझाने वाला विषय विपरीतलिंगाकर्षण व प्रेम होता है। इस उलझन से निकलने के प्रति अभिवावकों, अधयापकों, समाज के ठेकेदारों, समाज,तन्त्र के पास उपदेश, आदेश, दण्ड आदि के तो प्रावधान हो सकते हैं लेकिन वातावरण नहीं।

देश की एक यूनिवर्सटी व विश्व की कुछ यूनिवर्सिटीज ने अब इस विषय पर भी सच्चाई को सामने लाने के लिए पाठ्यक्रम रखा है।समाज व उसके ठेकेदार तो स्वयं उसमें उलझे हैं, वे क्या इस उलझन से विद्यार्थियों, युवक युवतियों को बचाएंगे? इस विषय पर न्याय करना तो बड़ा मुश्किल।

शिक्षा व प्रतिभाओं के लिए वातावरण कितना है?इस पर भी जाते हैं। एक युवक को विकास हेतु विभिन्न प्रोजेक्ट्स पर कार्य करने का जज्बा था।बड़ी मुश्किल से उसे एक राज्य के मुख्यमंत्री से मिलने का अवसर मिला लेकिन निरर्थक। उसे देश से जब कोई उम्मीद नहीं रह गयी तो,उसने अमेरिका प्रस्थान किया। अमेरिका से वह एक संस्था का डायरेक्टर बन कर भारत आया।अब वह भारत में काम तो कर रहा था लेकिन दूसरे देश के बैनर तले।उसे फिर उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिला जो मुख्यमंत्री था।उस मुख्यमंत्री को कोई अफसोस न था।दरअसल देश व समाज का सिस्टम दलालों, माफियाओं, कुछ परिवारों तक सीमित है। 165करोड़ का देश मुश्किल से ओलम्पिक में एक स्वर्ण पदक जीत पाता है वहीं एक करोड़ का देश 10 -10 स्वर्ण पदक तक जीत लेता है। वहीं शोध कर्म पर, देश में  इस पर भी बेईमानी है।जो स्नातन, परास्नातक नहीं है,या कम नम्बर  रखता है वह क्या नई खोज नई किताब नहीं लिख सकता है?देश एक मुठ्ठी भर लोग रेवड़ियां बांट कर खा रहे है।

समाज व देश के ठेकेदार ,संस्थाओं के मुखिया,तन्त्र आदि  विद्यार्थियों, युवाओं को उलझन,भ्रम आदि से निकाल कर देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं करना चाहते। एक विधायक कहते हैं,हमें भी तो हां में हां मिलाने वाले चाहिए।समाज व देश में अब भी क्षेत्र के कुछ परिवार होते हैं, जो कि ज्ञान, सम्विधान, मानवता आदि के आधार पर नहीं माफिया, नशा, जाति, धन, अपराध, थाना राजनीति, षड्यंत्र आदि आधारित होते है। जो समाज, राजनीति को प्रभावित करते ही हैं,क्षेत्र के अपराधी उनका आश्रय पाते हैं।

क्षेत्र में, देश में विपरीत लिंगाकर्षण,प्रेम के नाम पर जो जवानियों को बर्बाद कर लेते है उसके लिए क्या समाज व देश के ठेकेदारों का कोई दायित्व नहीं है? ठेकेदार ऐसा वातावरण देने में असमर्थ क्यों हैं, जो विपरीतलिंगाकर्षण व प्रेम पर फ़ोकस डाल कर जीवन मे जीवन प्रति आवश्यक आधार खड़ा कर सके।

हर व्यक्ति व बालक का अपना एक स्तर होता है,उस स्तर से उसे देखने की कोशिश नहीं की जाती।एक क्लास में मुश्किल से 02 प्रतिशत ही उस क्लास के स्तर के लोग होते हैं या फिर रतन्ति विद्या धारक होते है।




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें