हम तो तुम्हारे ग्रन्थों को ही हाथ में लिए तुम्हारे धर्मों के खिलाफ खड़े हैं::अशोकबिन्दु
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हे अर्जुन, तू भूतों को भेजेगा तो भूतों को प्राप्त होगा तू पितरों को भेजेगा तो पितरों को प्राप्त होगा तू देवों को भेजेगा तो देवों को प्राप्त होगा तू हमें भजेगा तो हम को प्राप्त होगा। ..... हे अर्जुन उठ दुनिया के सभी धर्म पंथ्यों को त्याग कर मेरी शरण आजा मुझको भजने का मतलब है मुझको प्राप्त हो जाना मुझको प्राप्त होने का मतलब है मुझे जैसा हो जाना ।आत्मा से ही परम आत्मा...... जाति ,मजहब, धर्मस्थल तेरा उत्थान नहीं कर सकते। अपनी आत्मा को पकड़ ।आत्मा से ही शुरू होती है यात्रा और आत्मा से ही खत्म होती है। यहां पर अर्जुन क्या है? यहां पर अर्जुन है अनुराग। तुममें अनुराग किसके प्रति है? आत्मा से अनुराग है. . परमात्मा से अनुराग है...
बात है हमारी, हम तो अपने शरीर, शरीरों, स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की आवश्यकताओं के लिए जी रहे हैं।
रीति रिवाजों को हम धर्म नहीं कह सकते।जाति मजहब को हम धर्म नहीं कह सकते।धर्मस्थल प्रेम को हम धर्म नहीं कह सकते।यहां तक कि हिंदुत्व को भी हम धर्म नहीं कह सकते.....
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।
पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना, दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना; तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है, पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी, छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना, सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना; आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है, नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी; तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है । (स० प्र० पंच्चम समु०)
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हे अर्जुन, तू भूतों को भेजेगा तो भूतों को प्राप्त होगा तू पितरों को भेजेगा तो पितरों को प्राप्त होगा तू देवों को भेजेगा तो देवों को प्राप्त होगा तू हमें भजेगा तो हम को प्राप्त होगा। ..... हे अर्जुन उठ दुनिया के सभी धर्म पंथ्यों को त्याग कर मेरी शरण आजा मुझको भजने का मतलब है मुझको प्राप्त हो जाना मुझको प्राप्त होने का मतलब है मुझे जैसा हो जाना ।आत्मा से ही परम आत्मा...... जाति ,मजहब, धर्मस्थल तेरा उत्थान नहीं कर सकते। अपनी आत्मा को पकड़ ।आत्मा से ही शुरू होती है यात्रा और आत्मा से ही खत्म होती है। यहां पर अर्जुन क्या है? यहां पर अर्जुन है अनुराग। तुममें अनुराग किसके प्रति है? आत्मा से अनुराग है. . परमात्मा से अनुराग है...
बात है हमारी, हम तो अपने शरीर, शरीरों, स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर की आवश्यकताओं के लिए जी रहे हैं।
रीति रिवाजों को हम धर्म नहीं कह सकते।जाति मजहब को हम धर्म नहीं कह सकते।धर्मस्थल प्रेम को हम धर्म नहीं कह सकते।यहां तक कि हिंदुत्व को भी हम धर्म नहीं कह सकते.....
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् । ।
पहला लक्षण – सदा धैर्य रखना, दूसरा – (क्षमा) जो कि निन्दा – स्तुति मान – अपमान, हानि – लाभ आदि दुःखों में भी सहनशील रहना; तीसरा – (दम) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे, चैथा – चोरीत्याग अर्थात् बिना आज्ञा वा छल – कपट, विश्वास – घात वा किसी व्यवहार तथा वेदविरूद्ध उपदेश से पर – पदार्थ का ग्रहण करना, चोरी और इसको छोड देना साहुकारी कहाती है, पांचवां – राग – द्वेष पक्षपात छोड़ के भीतर और जल, मृत्तिका, मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी, छठा – अधर्माचरणों से रोक के इन्द्रियों को धर्म ही में सदा चलाना, सातवां – मादकद्रव्य बुद्धिनाशक अन्य पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य, प्रमाद आदि को छोड़ के श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरूषों का संग, योगाभ्यास से बुद्धि बढाना; आठवां – (विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त यथार्थ ज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना; सत्य जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना इससे विपरीत अविद्या है, नववां – (सत्य) जो पदार्थ जैसा हो उसको वैसा ही समझना, वैसा ही बोलना, वैसा ही करना भी; तथा दशवां – (अक्रोध) क्रोधादि दोषों को छोड़ के शान्त्यादि गुणों का ग्रहण करना धर्म का लक्षण है । (स० प्र० पंच्चम समु०)
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