जिंदा हूँ तो जी लेने दो।
आज हम ये नहीं कह रहे हैं-"जिंदा हूँ तो जी लेने दो।"
कोरोना संक्रमण के दौरान शुरू के इक्कीस दिन लॉक डाउन ने हमें जीवन की ओर से ये महसूस कराया है।
आप क्या महसूस करते हैं?
हम भी ये महसूस करते है-रोटी, कपड़ा, मकान... बगैरा बगैरा।
अब से 30 साल पहले जो चीजें थीं, उनसे ही हमारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती थीं।अब जब घर से बाहर निकलते हैं तो चीजें ज्यादा होती हैं और जेब में सामर्थ्य कम। पूंजीवाद ने जो मार्केट खड़ा कर दिया है, उसने हमें बौना साबित कर ही दिया है।कुदरत को नजरअंदाज कर दिया है ।
हमारे व कुदरत के अंदर कुछ है, जो स्वतः है, निरन्तर है।लेकिन हम उसके अहसास से दूर जा चुके हैं।हम अपने अस्तित्व के अहसास से दूर जा चुके हैं। जीवन की नैसर्गिकता से दूर जा चुके हैं। हम किस व्यवस्था के साक्षी हो जाना चाहते हैं? हम महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि हम प्रकृति अभियान/यज्ञ के खिलाफ खड़े हैं।जन्म, मृत्यु, जीवन जीना, जिंदा रहना आदि सब कुदरत है।आयुर्वेद क्या है?आयु का विज्ञान, अवस्था का विज्ञान, प्रबंध का विज्ञान न कि हमारी इच्छाओं का विज्ञान।
हम इस अहसास में नहीं है, विश्वास में नहीं हैं कि उसके बिना पत्ता तक नहीं हिलता।हम बदले की भावना से जीना ही ,कार्य करना उचित समझते हैं न कि अपना कर्तव्य समझ कर। व्यक्ति का कोई स्तर नहीं है।हम जो करते है,उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है ।वही को दूसरा करता है तो उसकी हां में हां मिलता है। किसी में दम नहीं सत्य को जीने की।
कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं, महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप आस्तिक या नास्तिक हैं।महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं?वे 'नियति का निर्माण द हार्टफुलनेस वे '- में कमलेश डी पटेल दाजी क्या कहते हैं?आखिर 'बायोलॉजी ऑफ बिलीफ'में डॉ ब्रूस लिप्टन क्या कहते हैं?'द एक्ट ऑफ क्रियेशन'-में आर्थर कोसलर क्या कहते है? वे भी ऋषियों के दर्शन पर पहुंचते हैं।हमारी इच्छाओं, तृष्णाओं आदि का जीवन अभियान से सम्बन्ध ही नहीं है।वह तो एक सूक्ष्म से सूक्ष्म व्यवस्था है। जीवन तो अनन्त यात्रा की व्यवस्था है, जिसमें हमारी भूमिका कर्तव्य निभाने की है न कि इच्छाओं, तृष्णाओं में जीने की।
कुदरत में कोई समस्या नहीं है।समस्या स्वयं मनुष्य है।
माल्थस कहते हैं-मनुष्य जब नियंत्रण में नहीं जीता तो कुदरत नियंत्रण करती है। कुदरत के सामने कोई समस्या नहीं है।वह तो सन्तुलन करना जानती है लेकिन स्वयं मनुष्य समझे।नहीं समझे तो भुगते। इस धरती पर जो भी है वह निरर्थक नहीं है बेकार नहीं है और यदि कोई चीज कोई व्यक्ति हमारेे काम का नहीं है तो इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम उसके खिलाफ खड़े हो जाएं हम उसको जीने ना दे हम उसके अस्तित्व को हम उसकी आवश्यकता ओंं को खलल में डालें यदि हमें अपने दर्दों का अपनी समस्याओं का निदान करना है तो हमें अन्य के दर्द अंध की समस्याओं प्रति कम से कम तटस्थ तो रहना ही चाहिए ऐसा नहीं कि हम उसकी मजबूरियों का फायदा उठाएं उसे हम जीने ना दे हम इतने अमीर भी ना बन जाएं कि लोगों को खरीदने की औकात दिखाने लगे या फिर सामने वाले को इतना नीचा भी ना कर दें कि वह बिकने को तैयार हो जाए ।
आज हम ये नहीं कह रहे हैं-"जिंदा हूँ तो जी लेने दो।"
कोरोना संक्रमण के दौरान शुरू के इक्कीस दिन लॉक डाउन ने हमें जीवन की ओर से ये महसूस कराया है।
आप क्या महसूस करते हैं?
हम भी ये महसूस करते है-रोटी, कपड़ा, मकान... बगैरा बगैरा।
अब से 30 साल पहले जो चीजें थीं, उनसे ही हमारी आवश्यकताएं पूरी हो जाती थीं।अब जब घर से बाहर निकलते हैं तो चीजें ज्यादा होती हैं और जेब में सामर्थ्य कम। पूंजीवाद ने जो मार्केट खड़ा कर दिया है, उसने हमें बौना साबित कर ही दिया है।कुदरत को नजरअंदाज कर दिया है ।
हमारे व कुदरत के अंदर कुछ है, जो स्वतः है, निरन्तर है।लेकिन हम उसके अहसास से दूर जा चुके हैं।हम अपने अस्तित्व के अहसास से दूर जा चुके हैं। जीवन की नैसर्गिकता से दूर जा चुके हैं। हम किस व्यवस्था के साक्षी हो जाना चाहते हैं? हम महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि हम प्रकृति अभियान/यज्ञ के खिलाफ खड़े हैं।जन्म, मृत्यु, जीवन जीना, जिंदा रहना आदि सब कुदरत है।आयुर्वेद क्या है?आयु का विज्ञान, अवस्था का विज्ञान, प्रबंध का विज्ञान न कि हमारी इच्छाओं का विज्ञान।
हम इस अहसास में नहीं है, विश्वास में नहीं हैं कि उसके बिना पत्ता तक नहीं हिलता।हम बदले की भावना से जीना ही ,कार्य करना उचित समझते हैं न कि अपना कर्तव्य समझ कर। व्यक्ति का कोई स्तर नहीं है।हम जो करते है,उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है ।वही को दूसरा करता है तो उसकी हां में हां मिलता है। किसी में दम नहीं सत्य को जीने की।
कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं, महत्वपूर्ण ये नहीं है कि आप आस्तिक या नास्तिक हैं।महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं?वे 'नियति का निर्माण द हार्टफुलनेस वे '- में कमलेश डी पटेल दाजी क्या कहते हैं?आखिर 'बायोलॉजी ऑफ बिलीफ'में डॉ ब्रूस लिप्टन क्या कहते हैं?'द एक्ट ऑफ क्रियेशन'-में आर्थर कोसलर क्या कहते है? वे भी ऋषियों के दर्शन पर पहुंचते हैं।हमारी इच्छाओं, तृष्णाओं आदि का जीवन अभियान से सम्बन्ध ही नहीं है।वह तो एक सूक्ष्म से सूक्ष्म व्यवस्था है। जीवन तो अनन्त यात्रा की व्यवस्था है, जिसमें हमारी भूमिका कर्तव्य निभाने की है न कि इच्छाओं, तृष्णाओं में जीने की।
कुदरत में कोई समस्या नहीं है।समस्या स्वयं मनुष्य है।
माल्थस कहते हैं-मनुष्य जब नियंत्रण में नहीं जीता तो कुदरत नियंत्रण करती है। कुदरत के सामने कोई समस्या नहीं है।वह तो सन्तुलन करना जानती है लेकिन स्वयं मनुष्य समझे।नहीं समझे तो भुगते। इस धरती पर जो भी है वह निरर्थक नहीं है बेकार नहीं है और यदि कोई चीज कोई व्यक्ति हमारेे काम का नहीं है तो इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम उसके खिलाफ खड़े हो जाएं हम उसको जीने ना दे हम उसके अस्तित्व को हम उसकी आवश्यकता ओंं को खलल में डालें यदि हमें अपने दर्दों का अपनी समस्याओं का निदान करना है तो हमें अन्य के दर्द अंध की समस्याओं प्रति कम से कम तटस्थ तो रहना ही चाहिए ऐसा नहीं कि हम उसकी मजबूरियों का फायदा उठाएं उसे हम जीने ना दे हम इतने अमीर भी ना बन जाएं कि लोगों को खरीदने की औकात दिखाने लगे या फिर सामने वाले को इतना नीचा भी ना कर दें कि वह बिकने को तैयार हो जाए ।
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