शुक्रवार, 22 मई 2020

जिंदा मूर्तियों से मतभेद धर्म के गलियारों में ही::अशोकबिन्दु

जिंदा मूर्तियां!?
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""अशोकबिन्दु

हम जितना साधना में मजबूत होते हैं, उतना ही हम अपने को तुम्हारी धार्मिकता, उपासना, भक्ति, कर्मकाण्डों,भावना, नजरिया आदि से अपने को अलग पाते हैं।
 ध्यान मेँ हम देखते है जगत में जो भी है सब प्रकृति है।
जो उसमें है वह स्वतः है निरन्तर है। वह स्वतः ,निरन्तर हमारे अंदर भी है। उसको पाने के लिए/अहसास के लिए हमें बनाबटें, पूर्वाग्रह, संस्कार नहीं चाहिए। हमारा हाड़ मास शरीर, अन्य हाड़ मास शरीर, उसमें दिल सिवा हमारा धर्म स्थल क्या?गुरुद्वार/गुरुद्वारा सिवा।

कमलेश डी पटेल दाजी कहते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक।महत्वपूर्ण है कि आप महसूस क्या करते हैं?अपने अंदर,सबके अंदर क्या आप वह दशा महसूस करते हैं, जो परम् है अनन्त है?

हम देख रहे हैं,लॉक डाउन से पूर्व था - दुनिया न चले राम के बिना। ये ही कहने वाले आज दुःखी हैं दान,दक्षिणा न मिलने पर।वह कहना किसके लिए था?क्या दिल से था?कि दुनिया न चले राम के बिना?!!

ईश्वर की बनाई दुनिया मे,अन्य प्राणियों में,अपने अंदर क्या वह दिव्यता की संभावना नहीं दिखती?जो दिखनी चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें