शनिवार, 16 अप्रैल 2011

दूर तक जाएगी यह बात:मृ���ाल पाण्डे

अन्ना हजारे के अनशन की पटकथा को गांधी के नवजागरण अथवा उपहास का नाटकीय प्रतीक मान कर या लोकतंत्र की जय अथवा पराजय का संदेश दे रही हितोपदेशी कथा के रुप में कई तरह से लिखा जा सकता है लेकिन एक बात अभी भी साफ नहीं है विधेयक का प्रारूप बनाने वाली शिष्ट समाज के प्रतिनिधियों(तो क्या शेष समाज अशिष्ट है?)और सांसदों(क्या वे शिष्ट समाज के भी प्रतिनिधि नहीँ?)की मिलीजुली समिति मे बात अब किधर को मुड़ेगी और फल कैसा होगा?......2011मे जो लोग मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ बैठ कर इस विधेयक के प्रावधानो को संशोधित कर 15अगस्त तक संसद द्वारा पारित करवाने की बात कह रहे है,उनसे पूछना जायज है कि कानून बनाना तो संसद का ही एकाधिकार है.स्वयं संसद के किसी राजनीतिक दल या संसद के किसी राजनीतिक दल या संसद के सदस्य हुए बिना वे इसको बदलवा भी लें तो जस का तस पारित कैसे करवा पाएंगे?.......और यहां विनम्र अन्ना बहुत साफ नहीं कर पा रहे हैं कि लोकपाल बिल को संसद तक भेज कर वे और उनके सिपहसालार कौन से ने औजार किसी शमीवृक्ष के खोखल से निकाल लाएंगे,जो कायापलट कर देंगे?.....टीवी पर अन्ना ने भी कहा कि वे प्रधानमंत्री बन गये तो इतना भी नहीं कर पाएंगे,क्योंकि ज7अ अभी जागरुक नहीं है. तो यह काम कौ7 करेगा?



पर जो बात लोकपाल विधेयक के संदर्भ में निकली है,दूर तलक जाएगी.अन्ना का नेता विरोधी आन्दोलन जिस हद तक भ्रष्टाचार मिटाने की मांग करता है,उस हद तक वह चुनाव तंत्र मे भी शुद्धि की मांग करता है,जहां टीवी बंट रहे है.सांप्रदायिक मुद्दे उछाले जा रहे हैं.हर निर्वाचित सरकार पर पत्थर फेंक रही जनता के विश्वास अविश्वास मे झूलते मन का यह द्वेत अद्वेतवादी हिन्दुस्तानी राजनीति को लोकपाल के बावजूद पटरी से उतारकर कभी किसी सैनिक तानाशाह को नहीं न्यौत बैठे,इसकी गारंटी कौन लेगा? तहरीर चौक मे तो मिस्र की फौज गोलियां चलाने लगी है.

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