मंगलवार 3अगस्त2010 राष्ट्रीय सहारा मेँ पृष्ठ 15 पर ठीक ही लिखती हैँ कि-
" नौजवान गांव छोँड़ कर शहरोँ का रुख क्योँ करते हैँ?....शहर से विदेशोँ को पलायन कर रहे हैँ?.......जब यही युवा विदेशोँ मेँ जाकर अपने काबिलियत के बूते देश का नाम रोशन करते हैँ तो हम झट से उनका नाम बड़े बड़े अक्षरोँ मेँ अखबार या फिर टेलीवीजन पर दिखाते और खुश हो जाते हैँ."
आदि काल से ही परिवार ,समाज,आदि स्तर पर प्रतिभाओँ का किसी न किसी स्तर पर दम घोटनेँ की कोशिस की जाती रही है.जो अपनी प्रतिभा से समझौता न कर आगे बढ़ते रहे हैँ वे यशवान हुए हैँ और फिर कमल तो कीँचड़ मेँ ही तो खिलते हैँ न .संगीता जी जिसे आप पलायन कहती हैँ ,मैँ उसे पलायन नहीँ मानता.अपनी प्रतिभा से समझौता वैसे भी नहीँ करना चाहिए.अपनी प्रतिभा की दिशा दशा मेँ प्रवाहित होते ही रहना चाहिए.तथा कथित अपने ही निजता को मारते रहे हैँ.निन्यानवे प्रतिशत से भी ज्यादा लोग अपनी निजता से का फी दूर होते हैँ.कुछ मामले मेँ पश्चिम के लोग हम भारतीयोँ से बेहतर होते हैँ,जैसा कि मुंशी प्रेमचन्द्र ने भी कहा है.
कुछ प्रतिभाएँ ऐसी हुईँ जिन्हेँ उनके माता पिता ने तक पागल कह डाला लेकिन विदेश जाने के बाद अपनी प्रतिभा के सहारे ही वे यशवान हुईँ . अभिभावक अपनी सन्तानोँ को अपनी सन्तानोँ को सुकून देनी वाली प्रतिभा के अनकूल बनते नहीँ देखना चाहता. जिसने कहा है भारत आध्यात्मिक देश है,क्या देख कर कहा है ?यहाँ का व्यक्ति क्या चाहता है?उसके मन की दिशा दशा क्या है?जरा,अन्वेषण तो करेँ.वैज्ञानिक अध्यात्म के बिना समाज का स्तर नहीँ उठने वाला.कोरे भौतिकवाद का परिणाम देख तो रहे हो,जो कि योरोपीय क्रान्ति के बाद सत्तरहवीँ सदी से प्रारम्भ हुआ है.
6 साल पहले एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि अनुसंधानशालाओँ मेँ वैज्ञानिकोँ की कमी. जिसके बाद मेरा लेख प्रकाशित हुआ था .आखिर भारत के अनुसंधानशालाओँ मेँ वैज्ञानिकोँ कमी क्योँ न हो?वैज्ञानिक बनने के जो हालात हैँ,उन हालातोँ के खिलाफ खड़ा है अभिभावक.अभी कुछ दिन पूर्व एक समाचार के अनुसार एक विश्वविद्यालय अपने छात्रोँ मेँ से ऐसे तीन वैज्ञानिक नहीँ खोजने मेँ असफल रहा जिसे वह दिल्ली भेज सके.
ओशो ने ठीक ही कहा है कि सभी पाठशालाएँ स्मृतिशालाएँ हैँ.लाखोँ लोग प्रतिवर्ष विज्ञान की डिग्रियाँ ले सड़क पर आ जाते हैँ लेकिन उनमेँ से कितने वैज्ञानिक बन पाते हैँ या वैज्ञानिक सोँच के होते हैँ? विभिन्न मुद्दोँ पर आम आदमी और उनकी सोँच मेँ क्या फर्क होता है?
ऐसे फिर पलायन क्योँ न हो?
और फिर चाणक्य ने क्या कहा है?मनुष्य को कहाँ रहना चाहिए? फिर मैँ कहूँगा ,अपने विद्यार्थियोँ से भी मेँ यही कहता हूँ कि अपनी प्रतिभा के साथ कभी समझौता न करना.महापुरुषोँ के जीवन को स्मरण करना कभी न भूलना.चाहेँ क्योँ न हमेँ अपने परिवार समाज व देश से पलायन करना पड़े.
इसके लिए गीता से भी सीख ले सकते हैँ.आज दुख का कारण यह भी है कि हम 'स्व' से परिचित नहीँ हैँ,उसकी सुनना तो दूर की बात.
शेष फिर....
अशोक कुमार वर्मा'बिन्दु'
आदर्श इण्टर कालेज
मीरानपुर कटरा,शाहजहाँपुर(उप्र)
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